Wednesday, March 30, 2016


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डा'कुमार' पानीपती

 

तज़ल्लुम की  रुस्वाईयां  देख 'साबिर'

तग़ज्ज़ुल हया बेच कर खा गया हैं।

डा 'साबिर' पानीपती

 

 

डा 'कुमार' पानीपती

 

शहर-ए- 'हाली '-… 'सलीम’ का बेताज बादशाह:

डा० दौलत राम 'साबिर' पानीपती

 

तेरे जलवों ने कभी अमृत मिलाया था जिसे

हाय उस बेबस को तेरे बाद भी जीना पड़ा

मौत को खामोशियों में मिल गया तुझको सुकूँ

जीने बाले को मगर खून--जिगर पीना पड़ा

डा 'साबिर' पानीपती

यह था उस्ताद-मोहतरम जनाब डा० दौलत राम'साबिर' पानीपती का जो बेहतरीन क़ता जो सबसे पहले मेरीनज़र से उस वक्त  गुज़रा जब १९५६  ई० में पहली बार अपनीशरी तरबियत सिलसिले में एक मुअद’दबाना गुज़ारिशलेकर मैं उनकी रिहाइशगाह पर पहूचा।उनकी निशिस्तगाह के ऐन सामने जानी दीवार  में बनी हूई खूबसूरत अंगीठी के ऊपर रखी हुई उनकी -रफ़ीफ़ा--हयात मोहतरमा वीरों वाली की बाद-अज़-मर्ग ली हूई तस्वीर पर केप्शन की शक्ल में किताबतशुदा यह कता हर आने जाने बाले के दिल कोगहराइयों में उतर कर एक अजीब सा दर्द पेदा कर रहा था।और यही था जो कता जिसे पढ़ने बाद मुझे महसूस हुआकि डा साबिर' को अपनी रफ़ीफ़ा-ए-हयात से कुछ ड़ेयादा

ही लगाव था। चुनांचि मार्च १९५४ में मोहतरमा वीरां वाली को बेकक्त मौत बाद बो कुछ टूट  से गये थे और उनकीज़िन्दगी एक जीता जागता नोहा--ग़म बन कर रह गई थी।मरहूमा उन्हें ज़िन्दगी उस मोड़ यर उस वक्त छोड़ गई थींजब डा मौसूफ़ को उनके साथ की  और भी ज़्यादा ज़रुरत थी।

पारिवारिक फ़सल अभी बिलकुल कच्ची थी। उनके  'सभी बच्चे ज़ेर--तालीम थे। दोनों बेटे सुदर्शन और सोम  अभी कॉलेज में पढ़ रहे थे और तीनों बेटियाँ कमला, प्रेम और सरोज (जिसे वो  प्यार से घुक कह कर पुकारा करते थे, अभी बहुत छोटीथी ) हाँ , कमला और प्रेम तो स्कूल जाने लगी थीं परन्तु सरोजअभी घुटनों  के बल चलना ही सीख रही श्री चुनांचि 'साबिर'साहिब को बाप  के साथ-साथ माँ केराइज भी अंजाम देनेपड़ रहे थे। कुछ दिन बाद सोम तो तस्वीर से क़दरे ओझल होगये, मगर पारिवारिक जीवन अपनी ही रपत्तार से ज़िन्दगी के ऊबड़ खाबड़ रास्तों यर चलता रहा। उस दौर में मैंने ख़ुद डाक्टर  साहिब को रसोई में जमीन पर बैठ कर हर तरह के खाने पकाने का काम करते हुये देखा है, और आज भी आलूऔर मूली के उन पराठों का स्वाद बता सकता है जो वो  अपने

हाथों से बनाया करते थे और हम सभी लोग सुबह के वक्त (खुसूसन इतवार के रोज़ ) घर के आँगन में उनके आस-पास,इधर उधर बैठ कर शौक़  से खाया करते थे। कभी-कभी महाशय अमरनाथ (अखबारों जाले) जो डा० साहिब के यहीं'मिलाप', 'प्रताप' और 'प्रभात' जैसे अपने जमाने के मशहूरउर्दू अखबार देने आते थे, वहीं सामने की  सीढियों पर बैठ कर चाय के साथ एक आध पराठे का लुत्फ़ लेते हुये शहर की किसी गर्मागर्म खबर पर तबसरा भी कर जाते थे!